Monday, October 24, 2011

Kagaz ki khashti

अपने अन्दर के कलाकार को जगाकर
कापी के पन्ने से बनायीं मैंने एक नाव,
भावनाओ के बहाव में बहता हुआ
निकल पड़ा में अपने अगले पड़ाव |

अनंत सागर मेरा बिस्तर
तारो से जड़ा अम्बर मेरी चादर,
अंजान हवा मेरी सहेली
मेरी नाव थी मेरी दुनिया अकेली |

तूफानों से झूजकर में बड़ा इठलाया
नए रास्तों पे ढूंडने नई मंजिल,
एक किनारे से दुसरे, बड़ते रहा अल्हड
शौर्य, सुकीर्ति, स्वाभिमान किया हासिल |

जीत की ख़ुशी थी, लेकिन तब भी मन था खोया सा
इस बहाव में ठहराव कहीं था सोया सा,
विचलित मन में खयाल विद्युत् से दौड़ने लगे
लक्ष्यहीन अधूरे सवाल लहरों से उठने लगे |

भटकते हुए एक दिन, किसी टापू के किनारे
एक अर्धनग्न नर दिखा, करता हुए कुछ इशारे,
रमता जोगी सा कह रहा था वह ये -
"जो तेरा आधार है, वोही तेरा संसार है"

असमंजस में फसा मन समझ न पाया
उसके स्वरों की गूँज फिर जवाब ले आया,
अपनी कश्ती के कागज को खोलकर मैंने जब देखा
पन्ने की छोर पर मेरे घर का पता था लिखा |
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"A traveller goes around the world looking for something and comes back home to find it"